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ज्ञान

                                          गायत्री मंत्र का तत्वज्ञान
समस्त विद्याओं की भण्डागार-गायत्री महाशक्ति
ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है । वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है, वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं । गायत्री को 'वेदमाता' कहा गया है । चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं । ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चार वेदों को प्रकट किया ।

'ॐ भूर्भवः स्वः' से-ऋग्वेद,
'तत्सवितुर्वरेण्यं' से-यर्जुवेद,
'भर्गोदेवस्य धीमहि' से-सामवेद और
'धियो योनः प्रचोदयात्' से अथर्ववेद की रचना हुई ।

इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत आदि ८४ कलाओं का आविष्कार हुआ । इस प्रकार गायत्री, संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है । जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य की एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है, उसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है । यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है ।

मंत्रों में शक्ति होती है । मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं । उनका शब्द गुन्थन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं । साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है । उनके शब्दों में शक्ति तो होती है, पर उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता । पर गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है । इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए हैं । 'तत्-सवितुः - वरेण्यं-' आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम है एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त ६४ कलाओं, ६ शास्त्रों, ६ दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं । उन अर्थों का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरुष ही जानते हैं । वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिये प्रकट हैं ।

इन २४ अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है, अजर-अमर तक बन सकता है । इन २४ अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है । इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं । अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्त्वोंको हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं । जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है । प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्त प्रायः हो गई हैं । उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे । आज हम उनसे वञ्चित होकर दीन-हीन बने हुए हैं ।

‍आवश्यकता इस बात की है कि गायत्री महामन्त्र में सन्निहित उन लुप्तप्राय महाविद्याओं को खोज निकाला जाय, जो हमें फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं का स्वामी बना सके । यह विषय सर्वसाधारण का नहीं है । हर एक का इस क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं है । अधिकारी सत्पात्र ही इस क्षेत्र में कुछ अनुसंधान कर सकते हैं और उपलब्ध प्रतिफलों से जनसामान्य को लाभान्वित करा सकते हैं ।

गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं । वह योग भी है और तन्त्र भी । उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्मप्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन-संहार भी । गायत्री-योग दक्षिण मार्ग है- उस मार्ग से हमारे आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है ।

‍दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय, सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत् में अवस्थित पञ्चकोष, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी = अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय ।

गायत्री-तन्त्र वाम मार्ग है- उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है । वाम मार्ग का आधार यह है कि-'' दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय ।''

तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु नाश, पाप-नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है । परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधिविधान है । वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है, जिन्हें सद्गुरु कहते हैं ।

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   गायत्री की २४ शक्ति

गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं । तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियाँ तथा चौबीस �...

   गायत्री की २४ अक्षर

गायत्री महामंत्र में सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत का ज्ञान बीज रूप से पाया जाता है । मस्तिष्क के मूल में से जो मुख्य 24 ज्ञान तन्तु निकल कर मनुष्य के देह तथा मन का संचालन करते ह�...

   गायत्री की २४ कलाएँ

गायत्री के चौबीस अक्षरों से संबंधित कलाएँ एवं मातृकाएँ इस प्रकार हैं- (१) तापिनी (२) सफला (३) विश्वा (४) तुष्टा (५) वरदा (६) रेवती (७) सूक्ष्मा (८) ज्ञाना (९) भर्गा (१०) गोमती (१�...

   गायत्री की २४ मातृकाएँ

(१) चन्द्रकेश्वरी (२) अजतवला (३) दुरितारि (४) कालिका (५) महाकाली (६) श्यामा (७) शान्ता (८) ज्वाला (९) तारिका (१०) अशोका (११) श्रीवत्सा (१२) चण्डी (१३) विजया (१४) अंकुशा (१५) पन्नगा...

   गायत्री के २४ प्रत्यक्ष देवता

गायत्री मंत्र के २४ अक्षरों को २४ देवताओं का शक्ति - बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । प्रकारान्तर से इस महामंत्र को २४ देवताओं का एवं संघ, समुच्चय या सं�...

   गायत्री की २४ मस्तिष्कीय शक्ति

गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों को 24 देवताओं का शक्ति बीज मंत्र माना गया है । प्रत्येक अक्षर का एक देवता है । प्रकारान्तर से इस महामंत्र को 24 देवताओं का एंव संघ-समुच्चय या संयुक्त ...

   तात्विक विवेचन

ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । आर्शग्रंथों मे गयत्रि मन्त्र यह महामन्त्र वेदों में कई-कई बार आया है । ऋग्वेद मे�...

   गायत्री के २४ ऋषि

गायत्री के समग्र विनियोग में सविता देवता, विश्वामित्र ऋषि एवं गायत्री छन्द का उल्लेख किया गया है, परन्तु उसके वर्गीकरण में प्रत्येक अक्षर एक स्वतंत्र शक्ति बन जाता है । हर ...

   गायत्री के २४ छन्द

ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं । मोटे रूप से इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि-स्वर संहिता कह सकते हैं । सामवेद में मंत्र विद्या के महत्त्वपू�...

   गायत्री के २४ अवतार

'मार्कण्डेय पुराण' में शक्ति अवतार की कथा इस प्रकार है कि सब देवताओं से उनका तेज एकत्रित किया गया और उन सबकी सम्मिलित शक्ति का संग्रह-समुच्चय आद्य-शक्ति के रूप में प्रकट हुआ ...

   गायत्री के २४ रहस्य

तत्त्वज्ञानियों ने गायत्री मंत्र में अनेकानेक तथ्यों को ढूँढ़ निकाला है और यह समझने-समझाने का प्रयतन किया है कि गायत्री मंत्र के २४ अक्षर में किन रहस्यों का समावेश है । उन�...

   गायत्री की २४ मुद्रायें

छन्द-विद्या के अन्तर्गत साधना-विधान का जो उल्लेख मिलता है, उसे मुद्रा कहा जाता है । मुद्राओं में यों कई ग्रंथों में मात्र अंगुलि संचालन की सामान्य क्रियाओं को ही पर्याप्त म...

   २४ अक्षरों से २४ तत्व

सृष्टि की पदार्थ-सम्पदा का वर्गीकरण करने की दृष्टि से जिन पंच तत्त्वों की चर्चा की जाती है, उसे भौतिक जगत् की सृजन सामग्री कहा जाता है । उस सामान्य वर्गीकरण का विज्ञानवेत्त...

   शरीरस्थ २४ ग्रंथियाँ और उनकी शक्तियाँ

पिण्ड को ब्रह्माण्ड की छोटी प्रतिकृति माना गया है । वृक्ष की सारी सत्ता छोटी से बीज में भरी रहती है । सौर मण्डल की पूरी प्रक्रिया छोटे से परमाणु में ठीक उसी तरह काम करती देखी...

   २४ अक्षरों से सम्बन्धित २४ अनुभूतियाँ

देव शक्तियों के जागरण एवं अवतरण की अनुभूति प्रायः दो रूपों में होती है । प्रथम-रंग, दूसरा-गंध । ध्यानावस्था में भीतर एवं बाहर किसी रंग विशेष की झाँकी बार-बार हो अथवा किसी पुष...

   गायत्री के २४ अक्षर २४ बीज मंत्र

वेदमंत्र का संक्षिप्त रूप बीजमंत्र कहलाता है । वेद वृक्ष का सार संक्षेप बीज है । मनुष्य का बीज वीर्य है । समूचा काम विस्तार बीज में सन्निहित रहता है । गायत्री के तीन चरण हैं ...

   गायत्री चक्र

गायत्री पंचांग में गायत्री चौबीस अक्षरों से सम्बन्धित ऋषि, छन्द, देवता, वर्ण, तत्त्व, शक्ति, मुद्रा कला तथा उनकी उपासना से मिलने वाली फलश्रुति का वर्णन कुछ इस तरह से किया गया...

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ब्रह्मज्ञान



चारों तरफ ऋषियों के आश्रम थे। हर एक ऋषि की कुटिया फूल के पेड़ों और बेलों से घिरी थी। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी सहधर्मिणी अरुंधती से कह रहे थे, देवी! ऋषि विश्वामित्र के यहाँ जाकर जरा-सा नमक माँग लाओ।

विस्मित होकर अरुंधती ने कहा- यह कैसी आज्ञा दी आपने? मैं तो कुछ समझ भी नहीं पाई। जिसने मुझे सौ पुत्रों से वंचित किया। कहते-कहते उनका गला भर आया। पुरानी स्मृतियाँ जाग उठीं।

उन्होंने आगे कहा- मेरे बेटे ऐसी ही ज्योत्स्ना- शोभित रात्रि में वेद पाठ करते-फिरते थे। मेरे उन सौ पुत्रों को नष्ट कर दिया, आप उसी के आश्रम में लवण-भिक्षा करने के लिए कह रहे हैं? धीरे-धीरे ऋषि के चेहरे पर एक प्रकाश आता गया।

अरुंधती और भी चकरा गई। उन्होंने कहा- आपको उनसे प्रेम है तो एक बार 'ब्रह्मर्षि' कह दिया होता। इससे सारा जंजाल मिट जाता और मुझे अपने सौ पुत्रों से हाथ न धोने पड़ते।

ऋषि के मुख पर एक अपूर्व आभा दिखाई दी। उन्होंने कहा- आज भी विश्वामित्र क्रोध के मारे ज्ञान-शून्य हैं। उन्होंने निश्चय किया है कि आज भी वशिष्ठ उन्हें ब्रह्मर्षि न कहे तो उनके प्राण ले लेंगे। उधर अपना संकल्प पूरा करने के लिए विश्वामित्र हाथ में तलवार लेकर कुटी से बाहर निकले। उन्होंने वशिष्ठ की सारी बातचीत सुन ली। तलवार की मूँठ पर से हाथ की पकड़ ढीली हो गई।

सोचा, आह! क्या कर डाला मैंने! पश्चाताप से हृदय जल उठा। दौड़े-दौंडे गए और वशिष्ठ के चरणों पर गिर पड़े। इधर वशिष्ठ उनके हाथ पकड़कर उठाते हुए बोले - उठो ब्रह्मर्षि, उठो। आज तुमने ब्रह्मर्षि-पद पाया हैं।

विश्वामित्र ने कहा - आप मुझे ब्रह्मविद्या-दान दीजिए। वशिष्ठ बोले अनंत देव (शेषनाग) के पास जाओ, वे ही तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा देंगे।

विश्वामित्र वहाँ जा पहुँचे, जहाँ अनंत देव पृथ्वी को मस्तक पर रखे हुए थे। अनंत देव ने कहा, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान तभी दे सकता हूँ जब तुम इस पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर सको, जिसे मैं धारण किए हुए हूँ। तपोबल के गर्व से विश्वमित्र ने कहा, आप पृथ्वी को छोड़ दीजिए, मैं उसे धारण कर लूँगा।

अनंत देव ने कहा, अच्छा, तो लो, मैं छोड़े देता हूँ। और पृथ्वी घूमते-घूमते गिरने लगी। विश्वामित्र ने कहा, मैं अपनी सारी तपस्या का फल देता हूँ। पृथ्वी! रुक जाओ। फिर भी पृथ्वी स्थिर न हो पाई। अनंत देव ने उच्च स्वर में कहा, विश्वामित्र, पृथ्वी को धारण करने के लिए तुम्हारी तपस्या काफी नहीं है। तुमने कभी साधु-संग किया है? उसका फल अर्पण करो।

विश्वामित्र बोले, क्षण भर के लिए वशिष्ठ के साथ रहा हूँ। अनंत देव ने कहा, तो उसी का फल दे दो।

विश्वामित्र बोले, अच्छा, उसका फल अर्पित करता हूँ। और धरती स्थिर हो गई। तब विश्वामित्र ने कहा, देव! अब मुझे आज्ञा दें।

अनंत देव ने कहा, जिसके क्षण-भर के सत्संग का फल देकर तुम समस्त पृथ्वी को धारण कर सके, उसे छोड़कर मुझसे ब्रह्मज्ञान माँग रहे हो?
विश्वामित्र क्रुद्ध हो गए। उन्होंने सोचा, इसका मतलब यह है कि वशिष्ठ मुझे ठग रहे थे।

वे वशिष्ठ के पास जा पहुँचे और बोले, आपने मुझे इस तरह क्यों ठगा? वशिष्ठ बोले, अगर मैं उसी समय तुम्हें ब्रह्मज्ञान दे देता तो तुम्हें विश्वास न होता।