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उपासना

गायत्री मंत्र से करें शिव उपासना
पितृदोष, कालसर्प दोष निवारण हेतु करें



भगवान शिव सृष्टि के संहारकर्ता हैं। सृष्टि के र‍चयिता ब्रह्मा पालनकर्ता, श्री हरि विष्णु कल्याण करने वाले देवता हैं। ऐसी वेद, पुराण एवं विद्वानों की मान्यता है एवं सृष्टि का संचालन होता है। मनुष्य प्रभु की आराधना किसी भी रूप में करता चला आ रहा है। भारतीय मनुष्य शिव को कई रूपों में भजता है, पूजता है और मनाता है।

भगवान रुद्र साक्षात महाकाल हैं। सृष्टि के अंत का कार्य इन्हीं के हाथों है। सारे देव, दानव, मानव, किन्नर शिव की आराधना करते हैं। मानव के जीवन में जो कष्ट आते हैं, किसी न किसी पाप ग्रह के कारण होते हैं। भगवान शिव को सरल तरीके से मनाया जा सकता है। शिव को मोहने वाली अर्थात शिव को प्रसन्न करने वाली शक्ति 'गायत्री' (गायत्री मंत्र) है जो महाकाली भी कहलाती हैं।

जातक को यदि जन्म पत्रिका में कालसर्प, पितृदोष एवं राहु-केतु तथा शनि से पीड़ा है अथवा ग्रहण योग है जो जातक मानसिक रूप से विचलित रहते हैं जिनको मानसिक शांति नहीं मिल रही हो तो उन्हें भगवान शिव की गायत्री मंत्र से आराधना करना चाहिए।






मंत्र निम्न है :-

'ॐ तत्पुरुषाय विदमहे, महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्।'

इस मंत्र का विशेष विधि-विधान नहीं है। इस मंत्र को किसी भी सोमवार से प्रारंभ कर सकते हैं। इसी के साथ सोमवार का व्रत करें तो श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त होंगे।

शिवजी के सामने घी का दीपक लगाएँ। जब भी यह मंत्र करें एकाग्रचित्त होकर करें, पितृदोष, एवं कालसर्प दोष वाले व्यक्ति को यह मंत्र प्रतिदिन करना चाहिए। सामान्य व्यक्ति भी करे तो भविष्य में कष्ट नहीं आएगा। इस जाप से मानसिक शांति, यश, समृद्धि, कीर्ति प्राप्त होती है। शिव की कृपा का प्रसाद मिलता है।
विशेष : कोई भी आराधना सच्चे मन से करें तो सफलता अवश्य मिलेगी।
क्योंकि कालसर्प, पितृदोष के कारण राहु-केतु को पाप-पुण्य संचित करने तथा शनिदेव द्वारा दंड दिलाने की व्यवस्था भगवान शिव के आदेश पर ही होती है। इससे सीधा अर्थ निकलता है कि इन ग्रहों के कष्टों से पीड़ित व्यक्ति भगवान शिव की आराधना करे तो महादेवजी उस जातक (मनुष्य) की पीड़ा दूर कर सुख पहुँचाते हैं। भगवान शिव की शास्त्रों में कई प्रकार की आराधना वर्णित है परंतु शिव गायत्री मंत्र का पाठ सरल एवं अत्यंत प्रभावशील है।

कालसर्प दोष दूर करने के कुछ छोटे उपा



1. यदि पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका में क्लेश हो रहा हो, आपसी प्रेम की कमी हो रही हो तो भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या बालकृष्ण की ‍मूर्ति जिसके सिर पर मोरपंखी मुकुट धारण हो घर में स्थापित करें एवं प्रति‍दिन उनका पूजन करें एवं ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय अथवा ऊँ नमो वासुदेवाय कृष्णाय नम: शिवाय का यथाशक्ति जाप करे। कालसर्प योग की शांति होगी।

2. यदि रोजगार में तकलीफ आ रही है अथवा रोजगार प्राप्त नहीं हो रहा है तो पलाश के फूल गोमूत्र में डूबाकर उसको बारीक करें। फिर छाँव में रखकर सुखाएँ। उसका चूर्ण बनाकर चंदन के पावडर में मिलाकर शिवलिंग पर त्रिपुण्ड बनाएँ। 21 दिन या 25 दिन में नौकरी अवश्य मिलेग‍ी।

3. यदि कुंडली में कालसर्प दोष है तो नित्य प्रति भगवान शिव के परिवार का पूजन करें। आपके हर काम होते चले जाएँगे।

4. यदि शत्रु से भय है तो चाँदी के अथवा ताँबे के सर्प बनाकर उनकी आँखों में सुरमा लगा दें, फिर किसी भी शिवलिंग पर चढ़ा दें, भय दूर होगा व शत्रु का नाश होगा।

5. शिवलिंग पर प्रतिदिन मीठा दूध (मिश्री मिली हो तो बहुत अच्‍छा) उसी में भाँग डाल दें, फिर चढ़ाएँ इससे गुस्सा शांत होता है, साथ ही सफलता तेजी से मिलने लगती है।

6. नारियल के गोले में सप्त धान्य(सात प्रकार का अनाज), गुड़, उड़द की दाल एवं सरसों भर लें व बहते पानी में बहा दें अथवा गंदे पानी में (नाले में) बहा दें। आपका चिड़चिड़ापन दूर होगा। यह प्रयोग राहूकाल में करें।

7. सबसे सरल उपाय- कालसर्प योग वाला युवा श्रावण मास में प्रतिदिन रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला रोज करें। जीवन में सुख शांति अवश्य आएगी और रूके काम होने लगेंगे। 
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 श्री गायत्री चालीसा

भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी । गायत्री नित कलिमल दहनी ॥ 
अक्षर चौबिस परम पुनीता । इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता ॥
शाश्वत सतोगुणी सतरुपा । सत्य सनातन सुधा अनूपा ॥
हंसारुढ़ सितम्बर धारी । स्वर्णकांति शुचि गगन बिहारी ॥
पुस्तक पुष्प कमंडलु माला । शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला ॥
ध्यान धरत पुलकित हिय होई । सुख उपजत, दुःख दुरमति खोई ॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया । निराकार की अदभुत माया ॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई । तरै सकल संकट सों सोई ॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली । दिपै तुम्हारी ज्योति निराली ॥
तुम्हरी महिमा पारन पावें । जो शारद शत मुख गुण गावें ॥
चार वेद की मातु पुनीता । तुम ब्रहमाणी गौरी सीता ॥
महामंत्र जितने जग माहीं । कोऊ गायत्री सम नाहीं ॥
सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै । आलस पाप अविघा नासै ॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी । काल रात्रि वरदा कल्यानी ॥
ब्रहमा विष्णु रुद्र सुर जेते । तुम सों पावें सुरता तेते ॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे । जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे ॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी । जै जै जै त्रिपदा भय हारी ॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना । तुम सम अधिक न जग में आना ॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा । तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेषा ॥
जानत तुमहिं, तुमहिं है जाई । पारस परसि कुधातु सुहाई ॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई । माता तुम सब ठौर समाई ॥
ग्रह नक्षत्र ब्रहमाण्ड घनेरे । सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे ॥
सकलसृष्टि की प्राण विधाता । पालक पोषक नाशक त्राता ॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी । तुम सन तरे पतकी भारी ॥
जापर कृपा तुम्हारी होई । तापर कृपा करें सब कोई ॥
मंद बुद्घि ते बुधि बल पावें । रोगी रोग रहित है जावें ॥
दारिद मिटै कटै सब पीरा । नाशै दुःख हरै भव भीरा ॥
गृह कलेश चित चिंता भारी । नासै गायत्री भय हारी ॥
संतिति हीन सुसंतति पावें । सुख संपत्ति युत मोद मनावें ॥
भूत पिशाच सबै भय खावें । यम के दूत निकट नहिं आवें ॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई । अछत सुहाग सदा सुखदाई ॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी । विधवा रहें सत्य व्रत धारी ॥
जयति जयति जगदम्ब भवानी । तुम सम और दयालु न दानी ॥
जो सदगुरु सों दीक्षा पावें । सो साधन को सफल बनावें ॥
सुमिरन करें सुरुचि बड़भागी । लहैं मनोरथ गृही विरागी ॥
अष्ट सिद्घि नवनिधि की दाता । सब समर्थ गायत्री माता ॥
ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, जोगी । आरत, अर्थी, चिंतित, भोगी ॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें । सो सो मन वांछित फल पावें ॥
बल, बुद्घि, विघा, शील स्वभाऊ । धन वैभव यश तेज उछाऊ ॥
सकल बढ़ें उपजे सुख नाना । जो यह पाठ करै धरि ध्याना ॥

यह चालीसा भक्तियुत, पाठ करे जो कोय । तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय ॥

ॐ भूर्भवः स्वः त्तसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।

दोहा

हीं श्रीं, क्लीं, मेधा, प्रभा, जीवन ज्योति प्रचण्ड ।
शांति, क्रांति, जागृति, प्रगति, रचना शक्ति अखण्ड ॥
जगत जननि, मंगल करनि, गायत्री सुखधाम ।
प्रणवों सावित्री, स्वधा, स्वाहा पूरन काम ॥ 





आरती श्री गायत्री जी की

जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक क‌र्त्री॥ जयति ..
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री।
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥ जयति ..
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥ जयति ..
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥ जयति ..
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥ जयति ..
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥ जयति ..
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥ जयति ..
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥ जयति ..
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥ जयति ..
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥

साधना का उद्देश्य आत्मसत्ता को परिष्कृत करना है । जीव अपने आप में पूर्ण है । पूर्ण उत्पन्न हुआ पूर्ण ही होना चाहिए । इसके लिए उपयुक्त बोध, साहस और कौशल प्राप्त करने के लिए विभिन्न अध्यात्म साधनाएँ की जाती हैं । प्रसुप्त को जाग्रत में परिणत करने के लिए आत्म्-साधना का पुरुषार्थ किया जाता है । इस मार्ग पर चलते हुए जो सफलताएँ मिलती हैं, उन्हें सिद्धियों के नाम से जाना जाता है । उन्हें अतीद्रिय क्षमताएँ भी कहा जाता है । इन्हें सामर्थ्य अथवा क्षमताएँ भी कहा जाता है ।
इन सामर्थ्य अथवा क्षमताओं का मूल आत्म् बल या ब्रह्म तेज है, जिसका उपार्जन गायत्री मन्त्र की साधना द्वारा किया जाता है । इस क्षमता के चमत्कारी क्रिया कलाप भौतिक क्षेत्र में सम्पदाएँ-सफलताएँ और आत्मिक क्षेत्र में सिद्धियाँ-विभूतियाँ कही जाती हैं । यह आत्मिक क्षेत्र का उत्पादन है । जाग्रत आत्माओं का पुरुषार्थ इसी दिशा में नियोजित होता है । ब्रह्मतेज या आत्मबल के उत्पादन उपार्जन में जिस साधना का अभ्यास किया जाता है, उसमें पंचमुखी गायत्री का पंचकोश अनावरण मुख्य है ।
पंचकोशों के अनावरण की साधना में पाँच योगों का समावेश है-(१)त्राटक-विन्दुयोग (२)सूर्यवेधन प्राणायम-प्राणयोग (३) शक्ति चालिनी-कुण्डलिनी योग (४) खेचरी मुद्रा-त्रय योग (५) सोहम् साधना-हंसयोग । इस समन्वय को यम द्वारा नचिकेता की सिखाई गई कठोपनिषद वणत पंचाग्नि विद्या भी कह सकते हैं इस सरल योगाभ्यास का सामान्य परिचय इस प्रकार है-


विन्दुयोग (त्राटक)
भगवान शिव और भगवती दुर्गा के भ्रू मध्य भाग में तीसरा नेत्र चित्रित किया जाता है । यह तीसरा नेत्र है । दिव्य दृष्टि इसी में रहती है । दिव्य दृष्टि सामान्यतया दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं । उच्चस्तीय स्थिति में उसे दूर दर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है । वेधक दृष्टि भी यही हैं । इस केन्द्र से प्रचण्ड विद्युत शक्ति निकलती है और उसके द्वारा दूसरों को कई प्रकार के अनुदान देना सम्भव हो जाता है ।
भगवान शिव ने इसी तीसरे नेत्र से निकलने वाली प्रचण्ड विद्युत शक्ति के सहारे आक्रमणकारी कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था । संजय इसी केन्द्र का उपयोग टेलीविजन की तरह करते थे उन्होंने धृतराष्ट्र के पास बैठ कर ही सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का समाचार सुनाते रहने का काम अपने जिम्मे लिया था ।
इस शक्ति को जाग्रत करने की साधना त्राटक है । त्राटक साधना में घृत दीप जलाकर सामने रखते हैं । उसे एक बार आँख खोलकर देखते हैं, फिर आँखें बन्द कर लेते हैं । भ्रू मध्य भाग में ध्यान करते है कि प्रकाश ज्योति भीतर जल रही है और अन्तः क्षेत्र में विद्यमान तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती हुई, दिव्य दृष्टि उत्पन्न कर रही है । इस ध्यान में दीप ज्योति से सहायता मिलती है ।
संकल्प बल द्वारा आज्ञा चक्र में उसकी प्रतिष्ठापना होती है अभ्यास से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है कि चर्मचक्षुओं की तरह से इसे विश्वव्यापी दिव्यता का भान होने लगे । इसे विवेक का जागरण भी कह सकते हैं । त्राटक साधना से दूरदर्शी, तत्वदर्शी विवेक जाग्रत होता है, उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं । वही गायत्री मंत्र का धियः तत्व है । इस जागरण को आत्म जागरण की संज्ञा दी जाती है । इसे भौतिक और आत्मिक जीवन की महान् उपलब्धि भी कहा जा सकता है ।
प्राणयोग
इस निखिल ब्रह्माण्ड में वायु, ईथर, ऊर्जा आदि की तरह ही एक ऐसा दिव्य तत्व भी भरा पड़ा है जिसे जड़ चेतन की समन्वित शक्ति प्राण कहते हैं । यह प्रचुर परिणाम में सर्वत्र भरा पड़ा है । इसकी अभीष्ट मात्रा को खींचना और आत्म सत्ता में धारण कर सकना प्रयत्नपूर्वक सम्भव हो सकता है । इस प्राण विनियोग की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं ।
इसमें विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया के साथ श्वास-प्रश्वास क्रियाएँ करनी पड़ती है । साथ ही प्रचण्ड संकल्प-बल का वैज्ञानिक चुम्बकत्व समुचित मात्रा में समन्वित किये रहना होता है । इसी साधना को प्राणयोग कहते हैं । सामान्यतः इसे प्राणायाम कहते हैं । 'लय' और 'ताल' की महान् शक्ति का ज्ञान सर्व साधारण को तो नहीं होता, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वविदित न होने पर भी यह सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड है ।
सूर्यवेधन प्राणायाम में लय और ताल का विशेष समन्वय है । इड़ा और पिंगला शरीरगत दो विद्युत प्रवाह हैं जो मेरुदण्ड के अन्तराल में काम करते रहते हैं । इनका मिलन केन्द्र सुषुम्ना कहलाता है । पिंगला से सम्बंधित श्वास प्रवाह को उलट-पुलट कर चलाने की प्रक्रिया विशेष महत्त्वपूर्ण है । पेण्डुलम क्रम में उसी के तनिक से स्पर्श का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और घड़ी चलती रहती है । हृदय की धड़कन भी इसी उलट-पलट का क्रम रक्त-संचार के सहारे जीवन धारण किये रहने का महान कार्य सम्पादन करती है । इस लोम-विलोम क्रम से किया जाने वाला प्राण-योग सूर्य वेधन प्राणायाम कहलाता है । ब्रह्मवर्चस साधना में इसी का अभ्यास कराया जाता है । साधक अपने भीतर प्राण तत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता है । इस प्रक्रिया के द्वारा उपार्जित प्राण सम्पदा साधक की बहुमूल्य सम्पत्ति होती है । इस पूँजी को आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है । इसे बहिरंग और अंतरंग क्षेत्र का सामर्थ्य उत्पादक प्रयोग कह सकते हैं । कुण्डलिनी जागरण के लिए तो इसी क्षमता की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ी है । विद्युत उत्पादान में जो कार्य जेनरेटर करते हैं लगभग व्यक्तित्व में अनेक प्रयोजनों में काम आने वाजी प्राण ऊर्जा का संचय सूर्य वेधन प्राणायाम की साधना द्वारा किया जाता है ।

कुण्डलिनी योग  
ब्रह्मशक्ति का केन्द्र ब्रह्मलोक और जीव शक्ति का आधार भू लोक है । दोनों ही काया के भीतर सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं । भूलोक जीव संस्थान मूलाधार चक्र है । मूलाधार अर्थात् जननेन्द्रिय मूल । प्राणी इसी स्थान की हलचलों और संचित सम्पदाओं के कारण जन्म लेते हैं । इसलिए सूक्ष्म शरीर में विद्यमान उस केन्द्र का उद्गम स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है । कुण्डलिनी शक्ति इसी केन्द्र में नीचा मुँह किये मूर्च्छित स्थिति में पड़ी रहती है और विष उगलती रहती है । इस अलंकार विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है । प्रजनन कर्म इसी की सम्वेदनाशीलता की दृष्टि से अति सरस एवं उत्पादन की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला एक छोटा-सा किन्तु चमत्कारी अनुभव है । इसे कुण्डलिनी शक्ति का सर्वविदित प्रतिफल कह सकते हैं । वस्तुतः प्रकृति शक्ति का यह कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधार की भौतिक क्षमता का मानवीय उद्गम कहा जा सकता है । जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्म लोक में होता है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्ड शक्ति का अनुभव इस जननेन्द्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है । शारीरिक समर्थता, मानसिक सज्जनता और संवेदनात्मक सरलता, की तीनों उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं ।
कुण्डलिनी जागरण की साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने-उठाने और पूर्णता के केन्द्र से जोड़ देने का प्रयत्न किया जाता है । मूलाधार की प्रसुप्त कुण्डलिनी को जगाने तथा उर्ध्वगामी बनाने का प्रथम प्रयास शक्तिचालिनी मुद्रा के रूप में सम्पन्न किया जाता है । उर्ध्वमुखी कुण्डलिनी अग्नि शिखर की तरह मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्म लोक तक पहुँचती है तथा अपने अधिष्ठाता सहस्रार से मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है ।
शक्तिचालिनी मुद्रा गंदासंकोचन की एक विशेष पद्धति है जिसे सिद्धांत या मुद्रासन पर बैठकर विशिष्ट प्राण साधना के साथ सम्पन्न किया जाता है । इस प्रक्रिया का समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है जिससे उस शक्ति स्रोत के जागरण और उर्ध्व गमन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें । इस प्रयास से उत्पन्न हुई उत्तेजना का सदुपयोग करने वाले अनेक असाधारण काम सम्पन्न कर पाते हैं ।

लययोग
शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना जाता है । ब्रह्म यों तो सर्वव्यापी है, पर उसकी विशेष सत्ता ब्रह्मलोक में मानी जाती है । मनुष्य और ब्रह्मलोक का आदान-प्रदान ब्रह्मरंध्र मार्ग से होता है । ब्रह्मरंध अर्थात् मस्तिष्क का मध्यबिन्दु । ब्रह्माण्ड के मध्य में ब्रह्मलोक माना गया है और ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क में है । सहस्रात कमल इसी का नाम है । जीव और ब्रह्म के बीच अति महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान का माध्यम यही है ।
पृथ्वी की सम्पदा अन्तगर रही आदान-प्रदानों से संचित हो सकी है और उससे सूक्ष्म आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटते रहते हैं । इस आदान-प्रदान का केन्द्र द्वार ध्रुव है । ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क रूपी मानवीय ब्रह्मलोक का मध्य केन्द्र ब्रह्मरंध्र सहस्रार कमल है । यह जितना सशक्त और दुर्बल होता है, विकसित अविकसित रहता है उसी अनुपात में जीवन को ब्रह्म सत्ता के अनुदान प्राप्त कर सकने की सम्भावना बढ़ती है ।
अन्तर्गत के इस ब्रह्मलोक की सहस्र शीर्षा पुरुष की सहस्र धारा से सम्बंध बनाने और उससे होने वाली अमृत वर्षा का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा का साधन बताया गया है । ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त का साधन बताया गया है । ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है । सहलाने जैसे मन्द-मन्द स्पन्दन पैदा किये जाते हैं । उस उत्तेजना से सहस्र दल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है । बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वाग्र भाग के माध्यम से अन्तःचेतना को अनुभव होता है । यह खेचरी मुद्रा है । तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जिह्वाग्र भाग से उसे सुहलाना पयपान कहा गया है । तान्त्रिक हठयोगी उसे विषयान्तर स्तर का ब्रह्मानन्द कहते हैं । इस क्रिया से आनन्द और उल्लास की अनुभूति होती है । यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है । देवलोक से सोमरस झरता है । अमृत कलश से अनुदान पाकर आत्मा को अमरता की अनुभूति का आनन्द मिलता है । यह खेचरी मुद्रा की साधना से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं का ही अलंकारिक वर्णन है ।

इन विवेचनाओं से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यदि भावना और क्रिया का सही समन्वय करके इस साधना को किया जा सके तो चेतना क्षेत्र में आनन्द और कार्य क्षेत्र में उल्लास की उपलब्धि होती है । यह लाभ ही प्रकारान्तर से भौतिक ओर आत्मिक जगत के अनेकों लाभों को आभास कराता है । त्राटक का ऊपर से और खेचरी का नीचे से प्रभाव पड़ने के कारण साधक का ब्रह्मलोक उसका मध्य बिन्दु सहस्रार अपनी जाग्रत समर्थता का परिचय देने लगता है ।

हंसयोग-सोहम् साधना
शरीर निर्वाह में अन्न और जल से भी अधिक महत्व वायु का है । वायु में प्राण वायु की ऑक्सीजन की महत्ता सर्वोपरि है । ऑक्सीजन का महत्व विज्ञान के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं । रक्त में लालिमा उसी की है । इसी ईंधन के जलने से शरीर का इन्जन गर्म रहता है और सब कल पुर्जे अपना-अपना काम सही रीति से करते हैं । ऑक्सीजन का एक नाम प्राण वायु भी है । वह समुचित रूप से मिलती रहे तो शरीर बलिष्ट बना रहेगा ।

प्राण ऑक्सीजन से अधिक सूक्ष्म स्तर का है जिसे जीवनी शक्ति, प्रतिभा और प्रखरता के रूप में माना जाता है । सूक्ष्म प्राण के रूप में जीवट प्राप्त करने के लिये प्राणायाम किये जाते हैं । इसके अनेकों विधि-विधान हैं । उन्हीं में से एक सूर्य-वेधन अनुलोम-विलोम ब्रह्मवर्चस साधना में प्राण साधना के नाम से सम्मिलित है ।

इस साधना में मनःस्थिति को ब्राह्मी भूत बनाना पड़ता है । अपने को शरीर और मन से ऊपर की स्थिति में अनुभव कराने वाली ब्रह्म चेतना जगानी पड़ती है । इसकी भूमिका बन पड़ने पर श्वास प्रक्रिया में इतना दिव्य आकर्षण उत्पन्न हो जाता है कि उसके सहारे अनन्त अन्तरिक्ष में दिव्य प्राण को अपने लिए आकर्षित करना और उपलब्ध अंश को धारण कर सकना सम्भव होता है । इसी का नाम सोह्म साधना है ।

प्राणायाम में साँस खीचने की प्रक्रिया को पूरक कहते हैं । हंस योग में साँस खींचने के साथ अत्यन्त गहरे सूक्ष्म पर्यवेक्षण में उतर कर यह खोजना पड़ता है कि वायु के भीतर प्रवेश करते समय सीटी बजने जैसी 'सो' की ध्वनि भी उसके साथ ही घुली हुई है यह ध्वनि प्रकृतिगत नहीं वरन् ब्राह्मी है और ईश्वरीय संकेतों, संदेशों तथा अनुदानों से भरी हुई है । यह साँस के साथ भीतर प्रवेश करती है और सम्पूर्ण जीव सत्ता पर अपना अधिकार जमा लेती है ।

सोह्म के कुंभक में यही भावना रहती है कि जीवन सम्पदा पर परिपूर्ण अधिकार 'सो' -हम-परमेश्वर का हो गया । साँस छोड़ते समय सांप की फुसकार जैसी अहम् की ध्वनि का अनुभव-अभ्यास में लाना पड़ता है और भावना करनी होती है कि अहंता को विसर्जित निरस्त कर दिया गया है । अहम् के स्थान पर 'स' (उस परमेश्वर) की प्रतिष्ठाना हो गयी । वेदान्त योग की यही एकत्व अद्वैत स्थिति है । इसी में पहुँचने में अयमात्मा ब्रह्म-प्रज्ञानब्रह्म-शिवोहम्
सच्चिदानन्दोहम् का ही स्पष्टीकरण है । इस तथ्य को हर घड़ी स्मरण रखे रहने और स्मृति सूत्र को सुदृढ़ बनाने की सुविधा इसी अजपा जाप में मिलती है ।

गायत्री की ब्रह्मवर्चस् साधना-पंच कोशों के अनावरण की साधना है । उससे ब्रह्म सान्निध्य ब्रह्मसाक्षात्कार का लाभ मिलता है । उसके कितने ही आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे प्रतिफल हैं जिन्हें क्रमशः आत्मा का परमात्मा के रूप में विकास होता, अपूर्णता की पूर्णता में परिणति होती है

(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन: पृ-11.13)